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इ꣡न्द्रा꣢ग्नी नव꣣तिं꣡ पुरो꣢꣯ दासपत्नीरधूनुतम् । साकमेकेन कर्मणा ॥१७०४॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

इन्द्राग्नी नवतिं पुरो दासपत्नीरधूनुतम् । साकमेकेन कर्मणा ॥१७०४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नी꣡इति꣢ । न꣣वति꣢म् । पु꣡रः꣢꣯ । दा꣣स꣡प꣢त्नीः । दा꣣स꣢ । प꣣त्नीः । अ꣣धूनुतम् । सा꣣क꣢म् । ए꣡के꣢꣯न । क꣡र्म꣢꣯णा ॥१७०४॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1704 | (कौथोम) 8 » 2 » 17 » 3 | (रानायाणीय) 18 » 4 » 2 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तृतीय ऋचा की व्याख्या उत्तरार्चिक में १५७६ क्रमाङ्क पर परमात्मा और जीवात्मा के विषय में की गयी थी। यहाँ ब्रह्म-क्षत्र का विषय वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्राग्नी) ब्राह्मणो और क्षत्रियो ! (एकेन) अद्वितीय (कर्मणा) पुरुषार्थ से (साकम्) एक साथ तुम दोनों (दासपत्नीः) विनाशक काम-क्रोध आदि वा अधार्मिक दुष्ट जन जिनके स्वामी हैं, ऐसी (नवतिं पुरः) नव्वे शत्रु-नगरियों को (अधूनुतम्) कम्पायमान कर दो ॥३॥

भावार्थभाषाः -

ब्राह्मणों को विद्या तथा ब्रह्मवर्चस का प्रसार करके और क्षत्रियों को शत्रुओं से रक्षा करके राष्ट्र की उन्नति करनी चाहिए ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तृतीया ऋग् उत्तरार्चिके १५७६ क्रमाङ्के परमात्मजीवात्मविषये व्याख्यातपूर्वा। अत्र ब्रह्मक्षत्रविषय उच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्राग्नी) ब्राह्मणक्षत्रियौ ! (एकेन) अद्वितीयेन (कर्मणा) पुरुषार्थेन (साकम्) युगपत्, युवाम् (दासपत्नीः) दासाः उपक्षयितारः कामक्रोधादयोऽधार्मिका दुष्टजना वा पतयः स्वामिनो यासां ताः (नवतिं पुरः) नवतिसंख्यका अपि शत्रुनगरीः (अधूनुतम्) कम्पयतम्। [धूञ् कम्पने विध्यर्थे लङ्]॥३॥२

भावार्थभाषाः -

ब्राह्मणैर्विद्याया ब्रह्मवर्चसस्य च प्रसारं कृत्वा क्षत्रियैश्च शत्रुभ्यो राष्ट्ररक्षां विधाय राष्ट्रमुन्नेतव्यम् ॥३॥